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ऐसा क्यों है कि पढ़ी-लिखी,आत्मविश्वास से डग भरती औरतें या तो चरित्रहीन हो जाती हैं या करियर की भूखी

ऐसा क्यों है कि पढ़ी-लिखी,आत्मविश्वास से डग भरती औरतें या तो चरित्रहीन हो जाती हैं या करियर की भूखी

आजकल मुल्क में आजादी की आंधी चली हुई है। किसी को झंडे से आजादी चाहिए। किसी को नारों से, कोई गला फाड़कर चीखने की आजादी मांगता है तो कोई एंबुलेंस रोक डफली बजाने की। इस शोर में औरतों की आजाद आवाज फुसफुसाहट में बदल गई। अमां, तुम्हें भला किसने बंदी बना रखा है जो मुट्ठियां लहराती हो! अच्छी-भली आजाद तो हो।

हां, औरतें आजाद हैं। तभी तो टीचर, नर्स, डॉक्टर से होते हुए वे पुलिस और कोर्ट में भी ऊंचे ओहदों पर हैं। बस किसी को ये नहीं पता कि कड़क वर्दी में लंबे-लंबे डग भरती औरत जब दफ्तर पहुंचती है तो अधीनस्थ पुरुषों की आंखें उसे टटोलने लगती हैं।

औरत की आंखों में रतजगा दिखे तो ठहाके मारे जाते हैं। 'लगता है आज मैडम को प्रॉपर डोज मिला है!' बॉस औरत झड़प लगाए तो फट् से जुमला उछलता है - 'औरतें तो होती ही चिड़चिड़ी हैं'। मेकअप और दिनों से ज्यादा हो तो नजरें जख्मों के निशान देखकर ही तसल्ली पाती हैं। और फिर एक सदाबहार कमेंट- औरतों से बाहर का काम नहीं संभलता तो रोटियां क्यों नहीं बेलतीं। खुदा-न-खास्ता, तेज-तर्रार हो तो उसका औरत होना ही संदेह के दायरे में आ जाता है। अपनी आजाद-खयाली को नजीर की तरह देखने वाले ज्यादातर पुरुषों को भी सब कुछ चलेगा लेकिन औरत बॉस नहीं। दफ्तर को नरक बना देती है।

एक दूसरे जनाब भी हैं जो फरमाते हैं कि बगैर शादी रह लूंगा लेकिन खुद से ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए। अरेंज मैरिज हो तो लड़की में पिटी-पिटाई खूबियों के अलावा ये भी चयन की कसौटी होती है। पढ़ी-लिखी हो, अंग्रेजी में गिटपिटा सके लेकिन पति से बेहतर नहीं। ग्रेजुएट हो लेकिन पीएचडी नहीं, लड़की वाले भी लड़के के आगे दोहरे-तिहरे होते हुए शान बघारते हैं- इसका तो मन था आगे पढ़ने का लेकिन हमें कौन सा इसे गर्वनर बनाना है। आखिर एक न एक रोज बच्चे के पोतड़े धोने ही होंगे। तब अपनी डिग्रियों को रोएगी। अब जिसके घरवाले इतने संस्कारी हों, उनकी बेटी में भी तो गुलामी के कुछ अंश होंगे ही। तो लीजिए साहब, दन्न से बात पक्की हो जाती है।

चीन हमसे एक कदम आगे है। वहां ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़कियों को यूएफओ कहा जाता है। बता दें कि फिलहाल उड़न तश्तरियों के लिए ये टर्म इस्तेमाल होता है। चीन में इसके मायने बदल जाते हैं- वहां कोई लड़की ज्यादा पढ़-लिख जाए तो उसे यूएफओ कहते हैं, यानी- अगली (बदसूरत), फूलिश (मूर्ख) और ओल्ड (बूढ़ी)। यहां तक कि वहां औरतों के हक में बोलने वाली संस्था ऑल चाइना वीमेंस फेडरेशन ने कह दिया था कि पीएचडी करने वाली युवतियां शादी जैसे युवा रिश्ते के लिए बासी मोती रह जाती हैं। बासी मोती को भला कौन मर्द गले लगाए!

खुद से कहना होता है कि मर्द ने रेप किया, गलती तुम्हारी नहीं है, मर्द ने छेड़खानी की, मर्द ने गाली दी, हाथ उठाया, अपमानित किया, गलती तुम्हारी नहीं है

आसान जबान में कहें तो स्मार्ट औरतें अच्छी गुलाम नहीं हो पातीं। वो सवाल करती हैं, जवाब मांगती हैं और हद तो देखिये कि उसे चुनौती भी देती हैं। अब ऐसी आजादी भी भला किस काम की, जो घर तोड़ दे। लिहाजा, औरतों को पढ़ाया जाता है लेकिन तभी तक, जब तक वो विज्ञान और साहित्य के रट्टेभर लगाती दिखें।

किताबें पढ़ने तक मामला पकड़ाई में है लेकिन जैसे ही वे किताबों की दुनिया में पैर धरती हैं, सिंहासन डोल उठते हैं। तब शुरू होता है पढ़ी-लिखी औरतों को कोसने का सिलसिला। औरतों वाली मैगजीन पढ़ो, थोड़ा फैशन जानो। कुछ घर सजाने-बसाने की किताबें पढ़ो। ये क्या पीले पन्ने धर रखे हैं। अगर वो इतने में समझ जाए तो ठीक वरना फिर आदिमयुगीन टोटके आजमाए जाते हैं। औरत खींचकर किताबों से बाहर हो जाती है या फिर दिखती भी है तो अपने हिस्से के काम करती हुई।

कुल जमा औरतों के हिस्से वे काम आते हैं, जो तभी दिखते हैं, जब वे पूरे न हों। जैसे बिना इस्तरी के मुसे कपड़े या रसोई में जूठे बर्तनों का ढेर। इनका अधूरापन केवल गुस्सा दिलाता है। दिमाग या आत्मा को झकझोरता नहीं। अधूरी तस्वीर या अध लिखी किताब का दंश बेचारे पुरुषों के हिस्से है।

ऐसा क्यों है कि पढ़ी-लिखी,आत्मविश्वास से डग भरती औरतें या तो चरित्रहीन हो जाती हैं या फिर करियर की भूखी! पुरुष उजाला टूटने से पहले से लेकर देर रात तक लैपटॉप पर उंगलियां फटफटाएं तो जिम्मेदार। औरत करे तो कॉर्पोरेट क्वीन। बिल्कुल एक ही काम के लिए ये दो परिभाषाएं आखिर कैसे बनीं? जो औरत पढ़ सकती है, उसे साहित्य रचने पर क्यों रोका जाता है. या फिर अंतरिक्ष विज्ञान की बराबर समझ के बाद भी औरत से क्यों नींव का पत्थर बनने की उम्मीद की जाती है!

. बॉलीवुड की औरतें नशे में डूबी हैं, सिर्फ वही हैं जो ड्रग्स लेती हैं, लड़के सब संस्कारी हैं, लड़के दूध में हॉरलिक्स डालकर पी रहे हैं

खानाबदोशी के दौर में औरत और मर्द साथ फिरा करते थे। शेर को देखकर न औरत मर्द के पीछे जाती थी और न मर्द मारे हुए जानवर को औरत के कांधे लटकाते परहेज करता था। घर लौटकर मांस कोई साफ करता, तो भूनता कोई था। गुफाओं की दीवारों पर चित्रकारी दोनों के हिस्से थे। तूफानी नदियों की तैराकी दोनों जानते। जंगलों में कहां खुराक मिलेगी और कहां खतरा- ये नक्शा भी दोनों के दिलों पर साफ था। फिर ये बंटवारा कब हुआ? कैसे ऐसा हुआ कि किताबें-दफ्तर मर्दों की जागीर हो गए और घर औरत की दहलीज!

चलिए, पता लगाते हैं। ज्यादा नहीं, यही कोई हजारों साल पहले लौटना होगा। उस काल में जब घर की दहलीज केवल बाहर जाने या भीतर लौटने का जरिया था। आसमान-नदियां-जंगल-पहाड़ सबपर जनाने-मर्दाने पैरों की बराबर छाप थी। न कहीं कम, न कहीं ज्यादा।



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Why is it that educated, self-confident women are either characterless or career-hungry


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